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Friday 30 July, 2010

वर्तमान खाद्य-संकट और सरकारी नजरिया : एक विश्लेषण

 "पहरुए,जिन्हें सौंपा था,हमने अपना वतन,
देखो, वो ही हमारा चमन लूटते हैं."
लोकतंत्र के ठेकेदार देश को कहाँ से कहाँ तक पहुंचा सकते हैं, इसका ज्वलंत उदहारण हमारे समक्ष है. हाल ही में लोक-सभा में कृषि-मंत्री कि २४८६ टन गेंहू और ९१४१ टन चावल भारतीय खाद्य निगम कि गोदामों में सड़कर बर्बाद हो जाने की स्वीकारोक्ति जितनी अचंभित करने वाली है,उससे कहीं अधिक शर्मशार करने वाली है.यह मात्र एक लापरवाही नहीं है,बल्कि एक नीतिगत असफलता है,एक गंभीर आर्थिक अपराध है,जिसे इस देश की करोंड़ों भूखे पेट तड़पती जनता के प्रति किया गया है.यहाँ वह लोकोक्ति चरितार्थ हो जाती है कि"रोम जल रहा था और नीरो चैन कि बंसी बजा रहा था."यहाँ गोदाम हजारों टन अनाज से भरे रहे और वहां करोंड़ो लोग भुखमरी का शिकार हो आत्महत्या या अपराध करने को विवश होते रहे.यहाँ भूखे बच्चों कि तड़पती अंतड़ियाँ आर्त-नाद करती रही और वहां वे वातानुकूलित महलों में शब्दजाल से भूख मिटाने का पैगाम देते रहे.
आज मैं इस बर्बादी के जिम्मेदार लोंगों से पूंछना चाहता हूँ ,कि आखिर वे कौन लोग हैं,जो नक्सलवादी पैदा करते हैं ? वे कौन लोग हैं जो अपराधी पैदा करतें हैं ? कहा जाता है कि अपराध का जन्म पेट कि भूख से होता है,तो क्या इस घ्रणित उत्तरदायित्व कि शुरुआत इन्ही लोंगों से नहीं होती है ? इस सन्दर्भ में यह मार्मिक पंक्तियाँ सहसा याद आती है कि,"एक निवाले के लिए मैं ;जिसका खून कर आया,पता चला है;वह दो वक्त से भूखा था."
            यहाँ गोदाम भरे रहे व देश में खाद्य-मुद्रास्फीति १२.५% अंकों को पार करती रही. आखिर सरकार कि क्या मजबूरी थी कि वह समय रहते इस अनाज को जनता में नहीं बंटवा सकी ? क्या इसे व्यापारी वर्ग को लाभ पहुचाने का सुनियोजित षड्यंत्र नहीं माना जाये ? सरकार इस अनाज को जनता में बांटकर,उन्हें खाद्य-सुरखा प्रदान कर सकती थी,खाद्य-मुद्रास्फीति को नीचे ला सकती थी और उससे भी बड़ा प्रासंगिक प्रश्न यह है कि नई फसल को बफर स्टाक के लिए खरीदकर,कृषि-उपज मंडियों में जो करोंड़ो टन अनाज वर्षा कि भेंट चढ़ गया,उसे बचा सकती थी.पर शायद हमारे नीति-निर्मातायों की अक्ल को या तो लकवा मार गया है या उसे भेंसों को चरनें के लिए छोड़ दिया गया है.तभी वे जनहित की साधारण से बातों को समझ नहीं पाते हैं और पुर्वानुमान पर आधारित दूरदर्शी निर्णय नहीं ले पाते हैं. हम पेट की दावानल से जन्मे नक्सलवाद को मिटाने के लिए फौज खड़ी करते हैं,करोंड़ो का पैसा खर्च कर हथियारों का जखीरा इकट्ठा करतें हैं,और मैं सरकार से पूछना चाहता हूँ कि प्रभावित क्षेत्र में यह अनाज बंटवाकर पेट कि सुलगती दावानल को ठंडा कर दिया जाता तो क्या नक्सलवादी सरकार के मुरीद न हो जाते ? क्या उनकी मानवीय संवेदनाएं न जाग उठतीं ?
पर यहाँ तो करोंड़ो लोंगों के भोजन प्राप्त करने,अपने जीवन,अपने अस्तित्व व गरिमा को बचाए रखने के मूल-भूत अधिकार के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है; तो वहीँ इसी बर्बादी द्वारा एक जागरूक करदाता के मुंह पर  जोरदार तमाचा मारा जा रहा है.कुल मिलाकर निरीह जनता चारों खानें चित्त पड़ी हुई है और सरकार है कि अकर्मण्यता का लबादा ओड़कर मूकदर्शक बनी हुई है.यह एक ऐसा गंभीर आर्थिक अपराध है,जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता है.मेरी सभ्य-समाज कि संस्थायों से मार्मिक अपील है कि वे जनता के अपने अस्तित्व को बचाए रखने के मूलभूत अधिकारों कि रक्क्षार्थ इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार लोंगों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज करवाने कि कृपा करें.
यह लोक-वित्त के प्रति संसदीय उत्तरदायित्व के सरासर उल्लंघन का मामला है.विपक्ष को चाहिए कि वह इस अनुत्तरदायित्व पर संसदीय जबाबदेयी कि मांग करे और हमारे कृषि-मंत्री को चाहिए कि वह इसकी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करें.कृषि-मंत्री इसे निगम के अधिकारियों कि लापरवाही बताकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकतें हैं.यह संसदीय सरकार व मंत्रिमंडलीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत का तकाजा है कि सार्वजनिक अधिकारिओं कि लापरवाही कि जिम्मेदारी मंत्री महोदय को लेनी होती है,जबकि वह उनकी जानकारी में रहते हुए होती है.अब प्रश्न यह कि अगर यह लापरवाही उनकी जानकारी के बगैर हुई है तो वे दोषी अधिकारिओं के खिलाफ सख्त कार्यवाही करें और अगर उनके नीति-निर्देशों के अनुपालन में हुई है तो वे अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझें व अपने पद से इस्तीफ़ा दें.
लेखक-मनीष कुमार पटेल