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Saturday 10 April, 2010

"सपनों की एक दुकान"

आओ बच्चो विचारों का बनायें एक मकान
उसमें खोलें सपनों की एक दुकान
फिर उन सपनों में चुन-चुन कर डालें जान
जो ला सकें सबके ओंठों पर मुस्कान
इसी तरह हम उड़ें एक ऊँची-श्रेष्ठ उड़ान
और बनायें इस जग में अपनी सुंदर सी पहचान.

Sunday 4 April, 2010

"अंतर्द्वंद"

"अंतर्द्वंद"
कौन हूँ मैं ? क्या परिस्थितियों के हाथों नाचने वाली एक अदनी सी कठपुतली हूँ ? मेरे अस्तित्व का आधार क्या है ? मैंने सुना है की मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होता है , किंतु अनुभव यह दर्शाता है की कुछ तो है जो मनुष्य के हाथ मैं नही है ; कोई सत्ता अवश्य विद्यमान है जिसके लिए हम अपनी दशा एवं दिशा दोनों को अनिच्छा से निर्धारित करते जाते हैं  क्या यह परिस्थितियों का तूफ़ान है जो हमारे सपनों को एक ही झटके में उड़ा ले जाता है। क्या यह भाग्य का प्रतीक है, जिसके सामने हम अपने हाथ से केवल मुट्ठी से रेत फिसलते हुए देखते रहते हैं . अपनी सारी कोशिशों के बावजूद भी अपने आप को असहाय  महसूस करना या सब कुछ जानते हुए भी उससे अनजान हो जाना, या चिर-परिचित लक्ष्यों से बेखबर हो जाना । इच्छायों पर निराशा के बादल छा जाना , अपने लक्ष्य को जानते हुए भी बिना आत्मविश्लेषण के अनजान रास्तों पर कदम दर कदम बढ़ते चले जाना , क्या यही परिस्थितिमय भाग्य का झटका है ?
अब प्रश्न यह है की क्या मनुष्य परिस्थितियों का शिकार होने के लिए बाध्य है ? क्या उसका कोई स्वत्व नहीं है ?क्या वह परिस्थितियों के निर्माण के लिए जिम्मेदार नहीं है ? क्या उसके निर्णय परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं करते हैं , या उसके निर्णय स्वयं परिस्थितियोंवश आते हैं ?आख़िर कौन किसका गुलाम है ? क्या यह एक चक्रीय प्रक्रिया है ; तो फ़िर कौन किसके प्रति उत्तरदायी है ?
क्या मनुष्य को कर्म की निर्णायक स्वतंत्रता प्राप्त है ? शायद हाँ यह उस पर ही निर्भर है की वह क्या चाहता है। शायद परिस्थितियां व्यक्ति की क्षमता को परखने का आधार प्रदान करती हैं ; एवं व्यक्ति विशेष की महत्ता को स्थापित करती हैं । एक योद्धा के रणकौशल की परख तो सिर्फ़ रणभूमि में हीं  हो सकती है , तो फ़िर परिस्थितियों को दोष देना क्या सही है ? अगर विभिन्न प्रकार की परिस्थितियां न हो तो क्या व्यक्ति विशेष में निहित कमियों व खूबियों का पता चल सकता है, कभी नहीं. वस्तुतः परिस्थितियां व्यक्ति की प्रासंगिकता को स्थापित करती हैं और उसे अपनी सक्षमता में परिमार्जन का अवसर प्रदान करती हैं  अतः परिस्थितियों पर रोने वाले कायर होते हैं , उनमें इतनी जीवटता नही होती है की वे कठिनाइयों के बवंडर को पार करते हुए लक्ष्य से सानिध्य बना सके; कीर्ति ऐसे लोगो का स्वागत करने के लिए आतुर नहीं होती है , फ़िर भी अधिकांश लोग कठिन परिश्रम के बिना कीर्ति एवं प्रसिद्धि की इच्छा रखते हैं । क्यों वे सफलता की बजाय असफलता पर केन्द्रित हो जाते हैं ? क्यों वे नकारात्मक जीवन शैली के चलते अपने आप को नरक में धकेलने को बाध्य हो जाते हैं .
यह सच है की व्यक्ति स्वयं अपने सुख - दुःख का निर्णायक स्रोत होता है ; क्योंकि वह वही प्राप्त करता है जो वह प्राप्त करना चाहता है । व्यक्ति वही देखता एवं महसूस करता है जो वह अभिव्यक्त करना चाहता है ; इसलिए किसी अन्य पर दोषारोपण करना व्यर्थ है । अगर व्यक्ति चाहे तो वह एक ही समय मैं स्वर्ग एवं नरक दोनों को एक ही साथ महसूस कर सकता है ; यह सिर्फ़ नजरिये का अन्तर है , फ़िर क्यों लोग दुखों से अपना लगाव महसूस करते हैं ?
मैं सब कुछ जानते हुए भी ; सब कुछ के प्रति अनजान क्यों हो गया हूँ ? यधपि मैं अपने लक्ष्य को जानता हूँ , पर अपने रास्तों से बेखबर क्यों हो गया हूँ ? क्यों मैं अपने आप को असहाय एवं निरुपाय महसूस कर रहा हूँ ? क्या अभी भी मरे मन मैं कोई द्वंद बचा हुआ है ? शायद हाँ ; मैं पाप भी हूँ और पुण्य भी , मैं शरीर भी हूँ और आत्मा भी , मैं त्याग भी हूँ और भोग भी , मैं देव भी हूँ और दानव भी । संक्षेप में, मैं सिवा द्वंद के कुछ भी नही हूँ । क्या मेरा जीवन इन दो सीमाओं के भीतर पेंडुलम की भांति झूलता ही रहेगा ; या फ़िर मेरे जीवन में भी कभी स्थायित्व आएगा ?
बाधाओं को पैदा करने वाला भी मैं हूँ,तो उन्हें मिटाने वाला भी मैं ही हूँ. मैं यदि अपना सबसे बड़ा मित्र हूँ ,तो अपना सबसे बड़ा शत्रु भी हूँ . मेरे और दुनिया के बीच में सिवा मेरी अभिव्यक्ति के कुछ और है ही नहीं,तो जूझता भी मैं अपने-आप से ही हूँ . अपने-आप से लड़ने के इस उपक्रम में जीतकर भी हार की विवशता का अनुभव करने वाला भी मैं ही होता हूँ . स्पष्ट है की मेरे संदर्भ में "मैं" ही निर्णायक हूँ क्योंकि समस्या भी मैं ही हूँ तो समाधान भी मैं ही हूँ . प्रश्न भी मैं हूँ और उत्तर भी मैं ही हूँ . लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता एवं समर्पण की कमी , आधारभूत ज्ञान से दूरी; मेरे मन की कमजोरी को ही प्रदर्शित करते है । लक्ष्य से एकाकार होने की इच्छा मे कमी ; मेरे द्रनिश्चय की कमी का द्योतक है। अपनी सफलता - असफलता , सुख - दुःख का निर्णायक स्रोत मैं ही हूँ ; क्योंकि मैं भी कर्म-प्रभाव के बन्धन मैं बंधा हुआ हूँ ; और प्रकृति किसी एक के लिए अपने नियम नही बदला करती है।
सर्वोच्च सफलता को पाने के लिए इससे अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं हो सकती है । इसलिए अब मैं जाग रहा हूँ , मेरी आंखों के सामने छाया धुंध अब धीरे -धीरे छ्ट रहा है। मेरे जीवन का नित्यक्रम आज मुझसे कुछ अलग ही अभिव्यक्त करना चाह रहा है ;शायद अस्तित्व का सौंदर्य मेरी आत्माभिव्यक्ति को छूना चाह रहा है । अब मैं जीवन का नया संगीत सुन रहा हूँ ,मानों उसका सौंदर्य मेरे ह्रदय को अलंकृत कर रहा हो । अब रहस्य एवं द्वंद एक -एक करके विदा हो रहे है ;और शान्ति का संगीत मुझे छू रहा है । अब मैं सूरज की पहली किरणों के साथ अपने जीवन का नया अध्याय शुरू करने जा रहा हूँ ।
( मनीष कुमार पटेल )
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