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Friday 30 July, 2010

वर्तमान खाद्य-संकट और सरकारी नजरिया : एक विश्लेषण

 "पहरुए,जिन्हें सौंपा था,हमने अपना वतन,
देखो, वो ही हमारा चमन लूटते हैं."
लोकतंत्र के ठेकेदार देश को कहाँ से कहाँ तक पहुंचा सकते हैं, इसका ज्वलंत उदहारण हमारे समक्ष है. हाल ही में लोक-सभा में कृषि-मंत्री कि २४८६ टन गेंहू और ९१४१ टन चावल भारतीय खाद्य निगम कि गोदामों में सड़कर बर्बाद हो जाने की स्वीकारोक्ति जितनी अचंभित करने वाली है,उससे कहीं अधिक शर्मशार करने वाली है.यह मात्र एक लापरवाही नहीं है,बल्कि एक नीतिगत असफलता है,एक गंभीर आर्थिक अपराध है,जिसे इस देश की करोंड़ों भूखे पेट तड़पती जनता के प्रति किया गया है.यहाँ वह लोकोक्ति चरितार्थ हो जाती है कि"रोम जल रहा था और नीरो चैन कि बंसी बजा रहा था."यहाँ गोदाम हजारों टन अनाज से भरे रहे और वहां करोंड़ो लोग भुखमरी का शिकार हो आत्महत्या या अपराध करने को विवश होते रहे.यहाँ भूखे बच्चों कि तड़पती अंतड़ियाँ आर्त-नाद करती रही और वहां वे वातानुकूलित महलों में शब्दजाल से भूख मिटाने का पैगाम देते रहे.
आज मैं इस बर्बादी के जिम्मेदार लोंगों से पूंछना चाहता हूँ ,कि आखिर वे कौन लोग हैं,जो नक्सलवादी पैदा करते हैं ? वे कौन लोग हैं जो अपराधी पैदा करतें हैं ? कहा जाता है कि अपराध का जन्म पेट कि भूख से होता है,तो क्या इस घ्रणित उत्तरदायित्व कि शुरुआत इन्ही लोंगों से नहीं होती है ? इस सन्दर्भ में यह मार्मिक पंक्तियाँ सहसा याद आती है कि,"एक निवाले के लिए मैं ;जिसका खून कर आया,पता चला है;वह दो वक्त से भूखा था."
            यहाँ गोदाम भरे रहे व देश में खाद्य-मुद्रास्फीति १२.५% अंकों को पार करती रही. आखिर सरकार कि क्या मजबूरी थी कि वह समय रहते इस अनाज को जनता में नहीं बंटवा सकी ? क्या इसे व्यापारी वर्ग को लाभ पहुचाने का सुनियोजित षड्यंत्र नहीं माना जाये ? सरकार इस अनाज को जनता में बांटकर,उन्हें खाद्य-सुरखा प्रदान कर सकती थी,खाद्य-मुद्रास्फीति को नीचे ला सकती थी और उससे भी बड़ा प्रासंगिक प्रश्न यह है कि नई फसल को बफर स्टाक के लिए खरीदकर,कृषि-उपज मंडियों में जो करोंड़ो टन अनाज वर्षा कि भेंट चढ़ गया,उसे बचा सकती थी.पर शायद हमारे नीति-निर्मातायों की अक्ल को या तो लकवा मार गया है या उसे भेंसों को चरनें के लिए छोड़ दिया गया है.तभी वे जनहित की साधारण से बातों को समझ नहीं पाते हैं और पुर्वानुमान पर आधारित दूरदर्शी निर्णय नहीं ले पाते हैं. हम पेट की दावानल से जन्मे नक्सलवाद को मिटाने के लिए फौज खड़ी करते हैं,करोंड़ो का पैसा खर्च कर हथियारों का जखीरा इकट्ठा करतें हैं,और मैं सरकार से पूछना चाहता हूँ कि प्रभावित क्षेत्र में यह अनाज बंटवाकर पेट कि सुलगती दावानल को ठंडा कर दिया जाता तो क्या नक्सलवादी सरकार के मुरीद न हो जाते ? क्या उनकी मानवीय संवेदनाएं न जाग उठतीं ?
पर यहाँ तो करोंड़ो लोंगों के भोजन प्राप्त करने,अपने जीवन,अपने अस्तित्व व गरिमा को बचाए रखने के मूल-भूत अधिकार के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है; तो वहीँ इसी बर्बादी द्वारा एक जागरूक करदाता के मुंह पर  जोरदार तमाचा मारा जा रहा है.कुल मिलाकर निरीह जनता चारों खानें चित्त पड़ी हुई है और सरकार है कि अकर्मण्यता का लबादा ओड़कर मूकदर्शक बनी हुई है.यह एक ऐसा गंभीर आर्थिक अपराध है,जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता है.मेरी सभ्य-समाज कि संस्थायों से मार्मिक अपील है कि वे जनता के अपने अस्तित्व को बचाए रखने के मूलभूत अधिकारों कि रक्क्षार्थ इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार लोंगों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज करवाने कि कृपा करें.
यह लोक-वित्त के प्रति संसदीय उत्तरदायित्व के सरासर उल्लंघन का मामला है.विपक्ष को चाहिए कि वह इस अनुत्तरदायित्व पर संसदीय जबाबदेयी कि मांग करे और हमारे कृषि-मंत्री को चाहिए कि वह इसकी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करें.कृषि-मंत्री इसे निगम के अधिकारियों कि लापरवाही बताकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकतें हैं.यह संसदीय सरकार व मंत्रिमंडलीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत का तकाजा है कि सार्वजनिक अधिकारिओं कि लापरवाही कि जिम्मेदारी मंत्री महोदय को लेनी होती है,जबकि वह उनकी जानकारी में रहते हुए होती है.अब प्रश्न यह कि अगर यह लापरवाही उनकी जानकारी के बगैर हुई है तो वे दोषी अधिकारिओं के खिलाफ सख्त कार्यवाही करें और अगर उनके नीति-निर्देशों के अनुपालन में हुई है तो वे अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझें व अपने पद से इस्तीफ़ा दें.
लेखक-मनीष कुमार पटेल          

Tuesday 1 June, 2010

I.P.S. THE PATRIOT

भूमिका -
कहानी कश्मीर के एक नौजवान मुस्लिम आई .पी.एस. अधिकारी की है, जो राजनीतिक व प्रशासनिक कुव्यव्स्थायों से तंग आकर आतंक की राह पकड़ लेता है और एक राजनीतिक हत्या के अभियान के दौरान पकड़ा जाता है ; इसके बाद कहानी एक नए मोड़ पर आ कड़ी होती है . पूरा विवरण जानने के लिए आगे पड़े ....................................................

                           बात कश्मीर के एक ग्रामीण इलाके की है, जहाँ पर एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मुस्लिम परिवार रहता है. परिवार में वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सरफ़राज, उसकी पुत्रवधू शाहनाज एवं पोता अशफ़ाक है सरफ़राज का एकमात्र पुत्र इकबाल कश्मीर की आजादी के लिए लड़ रहे पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी गुट लश्कर -ऐ-तैबा के बहकाबे में आकर आतंकवादी बन जाता है और एक दिन भारतीय सेना के साथ मुठभेड़ में मारा जाता है. इसके बावजूद सरफ़राज को एक कश्मीरी के रूप में भारतीय नागरिक होने पर फक्र था और वह चाहते थे की उनका पोता उसी राह पर न जाये जिस पर चलकर उनका लड़का अपनी जान गवां बैठा था. उनकी दिली इच्छा थी की अशफ़ाक बड़ा होकर एक आई. पी. एस. अधिकारी बने तथा देश की सेवा में अपने आप को अर्पण करे. यही वजह की सरफ़राज ,अशफ़ाक की शिक्षा-दीक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं,किन्तु गाँव के अलगाववादी सरफ़राज को ताने मरते हैं की उस देश व सरकार के लिए वे अपने पोते की बलि चड़ा देना चाहते हैं ,जिसने उसके बेटे को कब्रिस्तान की राह दिखा दी. वे उसे इस्लाम की दुहाई देते हुए आजादी की लड़ाई के लिए  अशफ़ाक को मांगते है.इसका जबाब देते हुए सरफ़राज कहते है कि 'क्या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के हाल तुमने देखे नहीं हैं ? हमेशा पाक कि नापाक सेना के पावँ  तले रोंदे जाओगे ' और चंद सिक्कों तथा रोटी के टुकड़ो के लिया अपने जमीर बेंच देने को वह आजादी नहीं मानते हैं तथा बेगुनाहों के खून से लथपथ आजादी को वे आतंकवाद कि संज्ञा देते हैं . ऐसी बातों के लिए उन्हें अलगाववादियों कि दुत्कार का सामना करना पड़ता है.
                           ऐसे ही तमाम सामाजिक प्रतिरोधों के बाद भी सरफ़राज का परिवार हर नहीं मानता और अशफ़ाक सारी दुनिया के आकर्षणों को त्याग तंगहाली के जीवन में भी अपने दादा के स्वप्न को मुरझाने नहीं देता है और अपनी कड़ी मेह्नाह से कदम-दर-कदम शैक्षणिक उपलब्धियां हासिल करते हुए आखिरकार एक दिन आई.पी.एस. के लिए चुन लिया जाता है
                           उच्च आदर्शों को अपने मन में संजोये जब अशफ़ाक प्रशासन कि वास्तविक दुनिया में कदम रखता है तो पता है कि इस दुनिया में उसके आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं है ,क्योकि जनहित का मार्ग भी यहाँ राजनीति कि गन्दी गलियों से गुजरता है. वह यहाँ राजनीति-व्यवसाय व प्रशासन के मध्य एक विकृत गठजोड़ को जनहित कि कीमत पर  साकार होता हुआ देखता है. राष्ट्रिय एकीकरण के सपनों को संजोने वाला अशफ़ाक जब अपने आप को उन राजनेताओं से आदेशित होता हुआ पाता है जो कि धर्म,संप्रदाय,जांत-पांत,भाषा व क्षेत्र के नाम पर देश के टुकड़े-टुकड़े कर डालने पर अमादा हैं, तो उसका मन व्यथित हो उठता है. वह जब भी भ्रष्टाचार के उच्च-स्तरीय मामलों को उजागर करने कि कोशिश करता है तो उसे मंत्रियों कि राजनीतिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है .
                             राजनीति व प्रशासन कि विकृत कार्य संस्कृति व अपनी निष्ठां पर उठते सवालों से तंग आकर अशफ़ाक  आख़िरकार अपने पद से त्यागपत्र देने का मन बना लेता है. उसकी यह निराशा व पीड़ा एक कविता के रूप में उभरकर सामने आती है .
अतृप्ति के भाव लिए जीता हूँ ,
न जीता हूँ ,न मरता हूँ ।
जिन्दगी तो बस एक कोलाहल है ,
खत्म् न हो एक एसी हलचल है ।
एक बवंडर मेरे मन का ,
चिन्ह छोड़ता रचने- मिटने के वर्तुल का ।
कुछ आकंछायों के बोझ तले
अर्थ भूलता जीवन का ।
जीवन सरिता में अब ,
शोर नही कल-कल का ।
छूट रहा है कुछ जो पीछे,
हिसाब ढूढता उस पल-पल का।
अतृप्ति के भावः लिए जीता हूँ ,
हलाहल के प्याले अब में पीता हूँ ।
न जीता हूँ , न मरता हूँ ,
बस एक भावः लिए में जीता हूँ ।

                                 किन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था और वह अपने निमित्त को इस प्रकार हारता हुआ नहीं देख सकती थी,अतः चमत्कार होना तय था ,सो हुआ. अशफ़ाक अपनी उलझनों में उल्ज्झा हुआ अपने घर पर बैठा था कि अचानक उसे गावं से दादाजी के मित्र पंडित मिश्री लाल जी के आने कि खबर मिली. अशफ़ाक को परेशान देख पंडित जी उससे इसका कारण पूँछा तो अशफ़ाक ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया . यह सुनकर पंडित जी ने अशफ़ाक को सांत्वना देते हुए कहा कि प्रशासन में निष्ठां ,ईमानदारी ,संवैधानिक आदर्शों व मूल्यों के प्रति प्रतिबद्वता तो उस जैसे लोंगों से ही बनी हुई है, और अगर वे ही हिम्मत हार गए तो जनता व ईमानदार कर्मचारियों का मनोबल ही गिर जायेगा,तब इस देश को कौन संभालेगा ? क्या तुम यही चाहते हो कि इस देश का शासन ऐसे ही निकम्मे लोंगों के हांथों में बना रहे ? में और तुम्हारे दादाजी कि आत्मा तुमसे ऐसे पलायन कि उम्मीद नहीं कर सकते हैं.कुछ भी हो तुम्हें अपने कर्त्तव्य मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए और अपनी अंतिम साँस को भी इस देश कि सेवा में समर्पित करने से पीछे नहीं हटना चाहिए.चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियां क्यों न हों तुम्हे उनका पूरे धैर्य व द्रनता से उनका सामना करना चाहिए व अपराधी को उसके अपराध कि सजा मिली यही तुम्हारे जीवन का मूल-मंत्र होना चाहिए.
                                  पंडितजी के गीता-ज्ञान ने अशफ़ाक को नयी उर्जा व दिशा प्रदान कि और वह अपने आत्म-मूल्यांकन में लग जाता है,कि  कौन हूँ मैं ? क्या परिस्थितियों के हाथों नाचने वाली एक अदनी सी कठपुतली हूँ ? मेरे अस्तित्व का आधार क्या है ? मैंने सुना है की मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होता है , किंतु अनुभव यह दर्शाता है की कुछ तो है जो मनुष्य के हाथ मैं नही है ; कोई सत्ता अवश्य विद्यमान है जिसके लिए हम अपनी दशा एवं दिशा दोनों को अनिच्छा से निर्धारित करते जाते हैं  क्या यह परिस्थितियों का तूफ़ान है जो हमारे सपनों को एक ही झटके में उड़ा ले जाता है। क्या यह भाग्य का प्रतीक है, जिसके सामने हम अपने हाथ से केवल मुट्ठी से रेत फिसलते हुए देखते रहते हैं . अपनी सारी कोशिशों के बावजूद भी अपने आप को असहाय  महसूस करना या सब कुछ जानते हुए भी उससे अनजान हो जाना, या चिर-परिचित लक्ष्यों से बेखबर हो जाना । इच्छायों पर निराशा के बादल छा जाना , अपने लक्ष्य को जानते हुए भी बिना आत्मविश्लेषण के अनजान रास्तों पर कदम दर कदम बढ़ते चले जाना , क्या यही परिस्थितिमय भाग्य का झटका है ?
अब प्रश्न यह है की क्या मनुष्य परिस्थितियों का शिकार होने के लिए बाध्य है ? क्या उसका कोई स्वत्व नहीं है ?क्या वह परिस्थितियों के निर्माण के लिए जिम्मेदार नहीं है ? क्या उसके निर्णय परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं करते हैं , या उसके निर्णय स्वयं परिस्थितियोंवश आते हैं ?आख़िर कौन किसका गुलाम है ? क्या यह एक चक्रीय प्रक्रिया है ; तो फ़िर कौन किसके प्रति उत्तरदायी है ?
क्या मनुष्य को कर्म की निर्णायक स्वतंत्रता प्राप्त है ? शायद हाँ यह उस पर ही निर्भर है की वह क्या चाहता है। शायद परिस्थितियां व्यक्ति की क्षमता को परखने का आधार प्रदान करती हैं ; एवं व्यक्ति विशेष की महत्ता को स्थापित करती हैं । एक योद्धा के रणकौशल की परख तो सिर्फ़ रणभूमि में हीं  हो सकती है , तो फ़िर परिस्थितियों को दोष देना क्या सही है ? अगर विभिन्न प्रकार की परिस्थितियां न हो तो क्या व्यक्ति विशेष में निहित कमियों व खूबियों का पता चल सकता है, कभी नहीं. वस्तुतः परिस्थितियां व्यक्ति की प्रासंगिकता को स्थापित करती हैं और उसे अपनी सक्षमता में परिमार्जन का अवसर प्रदान करती हैं  अतः परिस्थितियों पर रोने वाले कायर होते हैं , उनमें इतनी जीवटता नही होती है की वे कठिनाइयों के बवंडर को पार करते हुए लक्ष्य से सानिध्य बना सके;
मैं सब कुछ जानते हुए भी ; सब कुछ के प्रति अनजान क्यों हो गया हूँ ? यधपि मैं अपने लक्ष्य को जानता हूँ , पर अपने रास्तों से बेखबर क्यों हो गया हूँ ? क्यों मैं अपने आप को असहाय एवं निरुपाय महसूस कर रहा हूँ ?
बाधाओं को पैदा करने वाला भी मैं हूँ,तो उन्हें मिटाने वाला भी मैं ही हूँ. मैं यदि अपना सबसे बड़ा मित्र हूँ ,तो अपना सबसे बड़ा शत्रु भी हूँ . मेरे और दुनिया के बीच में सिवा मेरी अभिव्यक्ति के कुछ और है ही नहीं,तो जूझता भी मैं अपने-आप से ही हूँ . अपने-आप से लड़ने के इस उपक्रम में जीतकर भी हार की विवशता का अनुभव करने वाला भी मैं ही होता हूँ . स्पष्ट है की मेरे संदर्भ में "मैं" ही निर्णायक हूँ क्योंकि समस्या भी मैं ही हूँ तो समाधान भी मैं ही हूँ . प्रश्न भी मैं हूँ और उत्तर भी मैं ही हूँ . लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता एवं समर्पण की कमी , आधारभूत ज्ञान से दूरी; मेरे मन की कमजोरी को ही प्रदर्शित करते है । लक्ष्य से एकाकार होने की इच्छा मे कमी ; मेरे द्रनिश्चय की कमी का द्योतक है। अपनी सफलता - असफलता , सुख - दुःख का निर्णायक स्रोत मैं ही हूँ ; क्योंकि मैं भी कर्म-प्रभाव के बन्धन मैं बंधा हुआ हूँ ; और प्रकृति किसी एक के लिए अपने नियम नही बदला करती है।
सर्वोच्च सफलता को पाने के लिए इससे अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं हो सकती है । इसलिए अब मैं जाग रहा हूँ , मेरी आंखों के सामने छाया धुंध अब धीरे -धीरे छ्ट रहा है।
                                  उपर्युक्त विश्लेषण के बाद अंततः अशफ़ाक ने त्यागपत्र देने का विचार त्याग दिया और अनुत्तरदायित्व ,भ्रष्टाचार व लापरवाही को बेनकाब करने व दोषी लोंगों को अपने हिसाब से सजा देने का खुद से वादा किया.
                                  इसी बीच अशफ़ाक की नयी पोस्टिंग मुंबई में की जाती है. यंहां उसका सबसे पहले सामना पुलिस-कर्मियों की बुलेट-प्रूफ वर्दी की खरीद में भ्रष्टाचार के मामले से होता है. वह घटिया किस्म की वर्दी सौदे को मंजूरी देना देश के रक्षकों के साथ विस्वासघात मानता है,किन्तु राज्य के आला अफसर,मुख्यमंत्री व ग्रहमंत्री उसके विरोध को नजर-अंदाज कर इस सौदे को मंजूरी प्रदान कर देते है. अशफ़ाक इस मुद्दे को केन्द्रीय गृहमंत्री के समक्ष ले जाता है किन्तु वे इसे राज्य का विषय बताकर व राज्य में अपनी पार्टी की सरकार के हितों को ध्यान में रखकर अशफ़ाक की बात को नजर-अंदाज कर देते हैं.
                                   अशफ़ाक राज्य के उच्च अधिकारीयों व मंत्रियों को समुद्री रास्तों की अपर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था के बारे में भी आगाह करता है,पर कोई उसकी बात को गंभीरता से नहीं लेता है. कुछ दिन बाद ही मुंबई में समुद्र के रस्ते घुसे १० आतंकवादियों द्वारा क्षत्रपति सिवाजी टर्मिनल,नरीमन हाउस,ओबेराय होटल,ताज होटल व लियोपोल्ड कैफे में गोलाबारी व बम विस्फोट कर लगभग २०० लोंगों को मौत के घाट उतर दिया जाता है. इन लोंगों में ५० सुरक्षा-कर्मी भी मारे जाते हैं. इस घटनाक्रम से सारा देश जहाँ स्तब्ध रह जाता है वहीँ अशफ़ाक निर्दोष लोंगों व साथी पुलिस-कर्मियों की मौत का जिम्मेदार आतंकवादियों के साथ-साथ आला पुलिस अफसरों,राज्नेतायों तथा व्यवसायियों को भी मानता है,और उन्हें सज़ा देने की कसम खता है,और इसी के साथ शुरू होता है न्याय का तांडव.
                                     सबसे पहले अशफ़ाक अज्ञात नाम से मुख्यमंत्री को कारण सहित सूचना देता है की वह चंद घंटों बाद उनकी ह्त्या करने वाला है. इसके लिए अशफ़ाक एक इलेक्ट्रानिक मक्खी का इस्तेमाल करता है जिसमें साइनाइड  नामक जहर भरा होता है. वह इसे अपने मोबाइल से दिशा-निर्देशित कर एक सार्वजनिक समारोह में मुक्यमंत्री की ह्त्या कर देता है. चूँकि मुख्यमंत्री की ह्त्या की जांच से इलेक्ट्रानिक उपकरणों के इस्तेमाल की बात सामने आ जाती है अतः अहतियात के तौर पर सार्वजनिक समारोहों में जैमर का प्रयोग किया जाने लगता है. अतः अशफ़ाक अपने नए शिकार गृह-राज्य मंत्री को मरने के लिए लेजर बीम का इस्तेमाल करता है. वह एक सार्वजनिक समारोह में अपने हाथ की घड़ी में लगे लेजर बीम उपकरण से लेजर बीम को कांच से परावर्तित करते हुए राज्य के गृह-राज्य मंत्री के मष्तिषक पर प्रहार करता है जिससे उनकी मौत हो जाती है. इसके बाद वह राज्य के उच्च पुलिस अधिकारीयों व घटिया वर्दी के सप्लायर को मौत के घाट उतारता है.
                                        इन उच्च स्तरीय लोंगों की हत्या से सारे देश में कोहराम मच जाता है. इन हत्याओं की गुत्थियाँ सुलझाने का भारी दायित्व रा पर आ पड़ता है और इसके लिए महिला पुलिस अधिकारी भारती आर्य के नेतृत्व में एक टीम गठित की जाती है. भारती आर्य इस बारे में पक्के तौर पर आश्वस्त थी की यह हत्यारा भारतीय ही है और राजनीतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए इस कार्य को अंजाम दे रहा है.वह यह भी जानती थी कि अशफ़ाक का अगला निशाना केंद्रीय गृह-राज्य मंत्री बनने वाले है , अतः वह उनकी सुरक्षा व निगरानी पर पर्याप्त ध्यान देती है और अंततः अशफ़ाक को एन वक्त पर हत्या करने से पहले पकड़ लेती है,और उसके माथे पर पिस्तोल अड़ा देती है. इस पर अशफ़ाक कहता है कि "मैं एक मुस्लिम ज़रूर हूँ पर एक आतंकवादी नहीं हूँ और न ही मैं निर्दोष लोंगों का कत्ल किया है,मैं तो उन लोंगों को सज़ा दी है जो इसके हक़दार थे . इस विकृत कार्य-संस्कृति को और विकृत होने से बचाने के लिए ऐसा सन्देश देना आज कि हालात में जरुरी था.मेरा आपसे कोई विरोध नहीं है ,आप बेशक मुझे गोली मार सकती हैं ,बस एक ही आरजू है कि मेरी लाश को मेरी सही पहचान के साथ दफ़न किया जाये न कि पाकिस्तानी आतंकवादी का लेबल लगाकर."
                                  भारती आर्य जानती थी कि अशफ़ाक अपने तरीकों या साधनों  में गलत ज़रूर है किन्तु उसके उद्देश्य या साध्य पवित्र थे और वह अशफ़ाक कि क्षमतायों का प्रयोग राष्ट्रहित में सही तरीके से करना चाहती थी. अतः वह अशफ़ाक को वहां से सुरक्षित निकाल ले गई और उसी दिन मारे गए एक आतंकवादी के सर पर तमाम हत्यायों का दोष मड दिया जाता है तथा इस मुद्दे से जुडी फाइल को ठन्डे बस्ते में डाल दिया जाता है.
                                   दूसरी तरफ भारती आर्य ने रा तथा सेना के उच्च अधिकारियों व प्रधानमंत्री के समक्ष पाकिस्तान प्र्ययोजित आतंकवाद से निपटने के लिए पाकिस्तान स्थित प्रशिक्षण शिवरों को नेस्तनाबूद करने कि एक गुप्त योजना का प्रस्ताव रखा ,जिसे माँ लिया गया. भारती आर्य ने इस कार्य को अंजाम देने के लिए अशफ़ाक को चुना. इस कार्य के लिए अशफ़ाक को छः माह का कठिन प्रशिक्षण दिया गया. उसने खासतौर पर अँधेरे में हेलीकाप्टर को चलाने व सटीक तौर पर निशाने तक पहुचने का अभ्यास किया तथा साथ ही सोफ्टवेयर व हार्डवेयर के अपने ज्ञान को उन्नत किया .
                                    इसके पश्चात अशफ़ाक को एक आतंकवादी घोषित किया गया और पाकिस्तान में प्रवेश कराने लिए योजनाबद्ध रूप से एक बंदी पाकिस्तानी आतंकवादी अफ़जल को को जरिया बनाया गया . फर्जी मुठभेड़ के बीच दोनों को पाकिस्तान भाग निकलने का मौका दिया गया. अशफ़ाक के पकिस्तान पहुचने पर आतंकवादियों द्वारा उसे परखने का निश्चय किया जाता है. इस प्रश्न पर एक आतंकवादी बोलता है सुना है कि हिन्दुस्तानी लोग औरत जात कि बड़ी इज्जत करते हैं और औरत जात के लिए उसकी आबरू से बड़ी और कोई बात नहीं होती है ,यही अशफ़ाक को परखने व हिंदुस्तान को पीड़ा पहुचाने का जरिया हो सकता है. इसके लिए वे एक हिन्दुस्तानी पर्यटक लड़की का अपहरण करते हैं और अशफ़ाक के सामने उसका सामूहिक बलात्कार करने कि कोशिश करते हैं,इस पर वह लड़की अशफ़ाक के पैरों में गिरकर उसे बचाने कि भीख मांगती है.इस पर अशफ़ाक बड़े ही असमंजस में पड़ जाता है ,क्योंकि एक तरफ तो उसका मिशन है तो दूसरी तरफ भारत कि इज्जत का सवाल सामने खड़ा था और उसे दोनों में से किसी एक काम में असफल होना मंजूर नहीं था,इसलिए उसने मन ही मन एक कड़ा निश्चय किया और आव न देख ताव गुस्से से भरकर वह उस लड़की के बाल पकड़कर उसे जमीन पर पटक देता है और कहता है कि उसे हर हिन्दुस्तानी से नफरत है और वह हर हिन्दुस्तानी को जान से मार देगा ; साथ ही वह बड़ी बेरहमी से उस लड़की को गला दबाकर मार देता है,क्योंकि उसको अपने आप को हिन्दुस्तानी विरोधी साबित करने तथा लड़की कि आबरू बचाने के लिए सिवा इसके अन्य कोई उपाय न बचा था. इस प्रकार वह आतंकवादियों का विशवास  जीत लेता है. तत्पश्चात वे उसे अलग-अलग केम्पों में आतंकवाद का प्रशिक्षण देते है. इस प्रशिक्षण के दौरान अशफ़ाक अपने अत्याधुनिक फ़ोन से गोपनीय सूचनाएँ रा को भेजता रहता है. कुछ समय पश्चात् पाक सेना समुद्री व हवाई मार्ग से भारत पर आतंकवादी हमला करने कि साजिश करती है ताकि भारत-पाक के बीच तनाव बड़ने से पाक को अपनी फौजों को अफगानिस्तान सीमा से हटाकर भारत की सीमा पर लगाने का बहाना मिल जाता और साथ ही पाकिस्तानी जनता की सहानभूति बटोरकर नव-स्थापित लोकतंत्र पर सेना अपना कब्ज़ा जमा सकती .
                               उपर्युक्त मंसुन्बों को पूरा करने के लिए पाक के थल सेना अध्यक्ष,आई.एस.आई.के प्रमुख,व जमात-उद-दावा के प्रमुख आतंकवादियों को संबोधित करने के लिए एक गुप्त सम्मलेन आयोजित करते है.अशफ़ाक इस सम्मलेन को अपने मिशन को पूरा करने के अवसर के रूप में देखता है और गुपचुप अपनी तैयारियां करते रहता है. वह सम्मलेन के स्थान पर जगह-जगह ऐसे बम छुपा देता है जिसे मोबाईल फ़ोन से नियंत्रित किया जा सके. सम्मलेन के दौरान चूँकि वहां जैमर का प्रयोग किया जाता है अतः अशफ़ाक बीच सम्मलेन में से पेट की गड़बड़ी का बहाना कर जैमर वाले स्थान पर जाता है और वहां तैनात सुरक्षा गार्ड से कहता है की सेना के कमांडर उससे अर्जेंट बात करना कहते है, इसके लिए जैसे ही वह गार्ड जैमर को स्विच आफ करता है ,अशफ़ाक के मोबाईल की लिंक बमों से जुड़कर उनमें विस्फोट कर देती है,जिसमे सभी महत्वपूर्ण अधिकारी मारे जाते हैं. इसके पश्चात वह वहां के बारूद गोदामों को नष्ट करते हुए हेलीकाप्टर से अन्य प्रशिक्षण शिवरों की ओर उड़ान भरता है और चुन-चुनकर उन्हें नष्ट करता है ,किन्तु अंतिम शिविर तक पहुचने के कुछ पूर्व ही उसके हेलीकाप्टर का ईधन खत्म हो जाता तब वह उससे कूंद कर जमीनी कार्यवाही को अंजाम देने का फैसला करता है और यह गाना गाते हुए आगे बढता है कि 'देखो वीर जवानों ,अपने खून पर ये इल्जाम न आये,माँ न कहे कि मेरे बेटो वक्त पड़ा तो काम न आये',इसके साथ ही वह वहां उपस्थित आतंकवादियों से मुकाबला करते हुए उन्हें ख़त्म करने के लिए बारूद के डिपो में आग लगा देता है और सबके साथ ही उसके भी चीथड़े उड़ जातें हैं.
                                   इस हादसे के लिए पाकिस्तान द्वारा भारत को जिम्मेदार ठहराया जाता है,किन्तु अशफ़ाक द्वारा भेजे गए सबूतों से पाकिस्तान कि कारगुजारिओं का पर्दाफाश किया जाता है.साथ ही भारती आर्य को पदोन्नति व अशफ़ाक को मरणोपरांत परमवीर-चक्र से सम्मानित किया जाता है.
                                    अंत में इस गाने के साथ कहानी समाप्त होती है कि ,'विजयी विश्व तिरगा प्यारा,झंडा ऊँचा रहे हमारा,इसकी शान न जाने पाए,चाहे जान भले ही जाए,तव होवे प्रण-पूर्ण हमारा,विजयी विश्व ..............'                               

Saturday 10 April, 2010

"सपनों की एक दुकान"

आओ बच्चो विचारों का बनायें एक मकान
उसमें खोलें सपनों की एक दुकान
फिर उन सपनों में चुन-चुन कर डालें जान
जो ला सकें सबके ओंठों पर मुस्कान
इसी तरह हम उड़ें एक ऊँची-श्रेष्ठ उड़ान
और बनायें इस जग में अपनी सुंदर सी पहचान.

Sunday 4 April, 2010

"अंतर्द्वंद"

"अंतर्द्वंद"
कौन हूँ मैं ? क्या परिस्थितियों के हाथों नाचने वाली एक अदनी सी कठपुतली हूँ ? मेरे अस्तित्व का आधार क्या है ? मैंने सुना है की मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होता है , किंतु अनुभव यह दर्शाता है की कुछ तो है जो मनुष्य के हाथ मैं नही है ; कोई सत्ता अवश्य विद्यमान है जिसके लिए हम अपनी दशा एवं दिशा दोनों को अनिच्छा से निर्धारित करते जाते हैं  क्या यह परिस्थितियों का तूफ़ान है जो हमारे सपनों को एक ही झटके में उड़ा ले जाता है। क्या यह भाग्य का प्रतीक है, जिसके सामने हम अपने हाथ से केवल मुट्ठी से रेत फिसलते हुए देखते रहते हैं . अपनी सारी कोशिशों के बावजूद भी अपने आप को असहाय  महसूस करना या सब कुछ जानते हुए भी उससे अनजान हो जाना, या चिर-परिचित लक्ष्यों से बेखबर हो जाना । इच्छायों पर निराशा के बादल छा जाना , अपने लक्ष्य को जानते हुए भी बिना आत्मविश्लेषण के अनजान रास्तों पर कदम दर कदम बढ़ते चले जाना , क्या यही परिस्थितिमय भाग्य का झटका है ?
अब प्रश्न यह है की क्या मनुष्य परिस्थितियों का शिकार होने के लिए बाध्य है ? क्या उसका कोई स्वत्व नहीं है ?क्या वह परिस्थितियों के निर्माण के लिए जिम्मेदार नहीं है ? क्या उसके निर्णय परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं करते हैं , या उसके निर्णय स्वयं परिस्थितियोंवश आते हैं ?आख़िर कौन किसका गुलाम है ? क्या यह एक चक्रीय प्रक्रिया है ; तो फ़िर कौन किसके प्रति उत्तरदायी है ?
क्या मनुष्य को कर्म की निर्णायक स्वतंत्रता प्राप्त है ? शायद हाँ यह उस पर ही निर्भर है की वह क्या चाहता है। शायद परिस्थितियां व्यक्ति की क्षमता को परखने का आधार प्रदान करती हैं ; एवं व्यक्ति विशेष की महत्ता को स्थापित करती हैं । एक योद्धा के रणकौशल की परख तो सिर्फ़ रणभूमि में हीं  हो सकती है , तो फ़िर परिस्थितियों को दोष देना क्या सही है ? अगर विभिन्न प्रकार की परिस्थितियां न हो तो क्या व्यक्ति विशेष में निहित कमियों व खूबियों का पता चल सकता है, कभी नहीं. वस्तुतः परिस्थितियां व्यक्ति की प्रासंगिकता को स्थापित करती हैं और उसे अपनी सक्षमता में परिमार्जन का अवसर प्रदान करती हैं  अतः परिस्थितियों पर रोने वाले कायर होते हैं , उनमें इतनी जीवटता नही होती है की वे कठिनाइयों के बवंडर को पार करते हुए लक्ष्य से सानिध्य बना सके; कीर्ति ऐसे लोगो का स्वागत करने के लिए आतुर नहीं होती है , फ़िर भी अधिकांश लोग कठिन परिश्रम के बिना कीर्ति एवं प्रसिद्धि की इच्छा रखते हैं । क्यों वे सफलता की बजाय असफलता पर केन्द्रित हो जाते हैं ? क्यों वे नकारात्मक जीवन शैली के चलते अपने आप को नरक में धकेलने को बाध्य हो जाते हैं .
यह सच है की व्यक्ति स्वयं अपने सुख - दुःख का निर्णायक स्रोत होता है ; क्योंकि वह वही प्राप्त करता है जो वह प्राप्त करना चाहता है । व्यक्ति वही देखता एवं महसूस करता है जो वह अभिव्यक्त करना चाहता है ; इसलिए किसी अन्य पर दोषारोपण करना व्यर्थ है । अगर व्यक्ति चाहे तो वह एक ही समय मैं स्वर्ग एवं नरक दोनों को एक ही साथ महसूस कर सकता है ; यह सिर्फ़ नजरिये का अन्तर है , फ़िर क्यों लोग दुखों से अपना लगाव महसूस करते हैं ?
मैं सब कुछ जानते हुए भी ; सब कुछ के प्रति अनजान क्यों हो गया हूँ ? यधपि मैं अपने लक्ष्य को जानता हूँ , पर अपने रास्तों से बेखबर क्यों हो गया हूँ ? क्यों मैं अपने आप को असहाय एवं निरुपाय महसूस कर रहा हूँ ? क्या अभी भी मरे मन मैं कोई द्वंद बचा हुआ है ? शायद हाँ ; मैं पाप भी हूँ और पुण्य भी , मैं शरीर भी हूँ और आत्मा भी , मैं त्याग भी हूँ और भोग भी , मैं देव भी हूँ और दानव भी । संक्षेप में, मैं सिवा द्वंद के कुछ भी नही हूँ । क्या मेरा जीवन इन दो सीमाओं के भीतर पेंडुलम की भांति झूलता ही रहेगा ; या फ़िर मेरे जीवन में भी कभी स्थायित्व आएगा ?
बाधाओं को पैदा करने वाला भी मैं हूँ,तो उन्हें मिटाने वाला भी मैं ही हूँ. मैं यदि अपना सबसे बड़ा मित्र हूँ ,तो अपना सबसे बड़ा शत्रु भी हूँ . मेरे और दुनिया के बीच में सिवा मेरी अभिव्यक्ति के कुछ और है ही नहीं,तो जूझता भी मैं अपने-आप से ही हूँ . अपने-आप से लड़ने के इस उपक्रम में जीतकर भी हार की विवशता का अनुभव करने वाला भी मैं ही होता हूँ . स्पष्ट है की मेरे संदर्भ में "मैं" ही निर्णायक हूँ क्योंकि समस्या भी मैं ही हूँ तो समाधान भी मैं ही हूँ . प्रश्न भी मैं हूँ और उत्तर भी मैं ही हूँ . लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता एवं समर्पण की कमी , आधारभूत ज्ञान से दूरी; मेरे मन की कमजोरी को ही प्रदर्शित करते है । लक्ष्य से एकाकार होने की इच्छा मे कमी ; मेरे द्रनिश्चय की कमी का द्योतक है। अपनी सफलता - असफलता , सुख - दुःख का निर्णायक स्रोत मैं ही हूँ ; क्योंकि मैं भी कर्म-प्रभाव के बन्धन मैं बंधा हुआ हूँ ; और प्रकृति किसी एक के लिए अपने नियम नही बदला करती है।
सर्वोच्च सफलता को पाने के लिए इससे अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं हो सकती है । इसलिए अब मैं जाग रहा हूँ , मेरी आंखों के सामने छाया धुंध अब धीरे -धीरे छ्ट रहा है। मेरे जीवन का नित्यक्रम आज मुझसे कुछ अलग ही अभिव्यक्त करना चाह रहा है ;शायद अस्तित्व का सौंदर्य मेरी आत्माभिव्यक्ति को छूना चाह रहा है । अब मैं जीवन का नया संगीत सुन रहा हूँ ,मानों उसका सौंदर्य मेरे ह्रदय को अलंकृत कर रहा हो । अब रहस्य एवं द्वंद एक -एक करके विदा हो रहे है ;और शान्ति का संगीत मुझे छू रहा है । अब मैं सूरज की पहली किरणों के साथ अपने जीवन का नया अध्याय शुरू करने जा रहा हूँ ।
( मनीष कुमार पटेल )
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Tuesday 30 March, 2010

आओ बनायें अपना मध्य प्रदेश

आओ बनायें अपना मध्य प्रदेश
जय देश,जय देश,जय देश
यही है जनता का जनादेश
आओ बनायें अपना मध्य प्रदेश
सब तक पहुचाएं  यही सन्देश
सम्रद्ध करें स्वदेश
बनाकर स्वर्णिम मध्य प्रदेश
जय देश,जय देश,जय देश
स्वराज,न्याय,विकास ,
समता,सुशासन ,लोकतंत्र का
अपनी अंतरात्मा में भर दें निर्देश
ताकि ऐसी सम्रद्धि हो मेरे प्रदेश की
जो गूँज उठे विदेश
आओ बनायें अपना प्रदेश
मध्य प्रदेश,जय देश,जय देश,जय देश.
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इच्छाओं की अठखेलियाँ

मन की भूलभुलैया में
इच्छाओं की अठखेलियाँ
गढ़ती-बुनती झूठे सपने
किन्तु यथार्थ के एहसास के साथ
और तारतम्य में विकृत हो जाता
आत्मविश्वास,व्यक्तित्व, व विचारधारा
निकृष्ट बुद्धि की दूषित शराब के साथ
अवचेतन के आँगन में
पैर पसारती इच्छायों की दुर्गन्ध
तहस-नहस करती मन के पर्यावरण को
बदल देती आत्मा के आवरण को
और शेष रह जाता जीवन के कलरव में
खदबदाता एक विषाद.
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Tuesday 9 March, 2010

संसदीय गरिमा का बलात्कार

संसदीय गरिमा का बलात्कार
हाल ही में महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर भारतीय संसद में विपक्ष के कुछ सदस्यों द्वारा संसदीय गरिमा का जिस तरह से बलात्कार किया गया है,विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है ? लोकतंत्र के मंदिर की व्यवस्था बिगाड़ने वाले इन जन-प्रतिनिधियों के हाथो में क्या देश की व्यवस्था सुरक्षित रह सकती है ? यह विश्लेषण का विषय हो सकता है. संसदीय अनुशासन को सरे-आम नग्न करने वाले इन जनप्रतिनिधियों को क्या वास्तव में संसद में रहने का अधिकार है ? इस पर आगामी चुनाव में जनता को अवश्य सोचना चाहिए. विधेयक की प्रतिया फाड़कर सभापति महोदय पर फेककर व आसंदी पर लगे माइक को उखाड़ने के प्रयास कर इन सदस्यों ने अपनी असभ्यता,बर्बरता व नीचता का परिचय दिया है, तो उन्हें दण्डित न कर सक्षम अधिकारियो ने अपनी नपुंसकता का परिचय दिया है; भारत-वर्ष में सदियों से यही तो होता आ रहा है;और यही कारण है की सांसद जब चाहे तब सरे-आम संसदीय गरिमा के वस्त्र उतार कर इस देश की जनता को समूचे विश्व में शर्मसार कर देते है. क्या इन सांसदों को राष्ट्रीय अस्मिता को सार्वजनिक रूप से छति पहुचाने का अपराध करने के लिए अभियोजित नहीं किया जाना चाहिए ? चूँकि संसद की चारदीवारी के भीतर उठने वाले मुद्दों को सामान्यतः न्यायलय के समक्ष नहीं लाया जा सकता है तथा इनको न्याय-निर्णीत करने की महती जिम्मेदारी पीठासीन अधिकारियो की होती है ; अतः उनका यह वैधानिक व नैतिक कर्तव्य है की वे राष्ट्रीय अस्मिता व संसदीय अनुशासन के अनुरक्षण के लिए सक्रियतापूर्वक कठोर कार्यवाही करे अन्यथा वे भी इन दुर्योधनो को बचाने के लिए इतिहास में भीष्म-पितामह की तरह जाने जायेंगे ; और यह निश्चित है की जब तक अपेक्षित कठोर कार्यवाही नहीं की जाएगी तब तक इन दुस्साहसी जनप्रतिनिधियों की बदोलत संसदीय कार्यवाही बार-बार स्थगित की जाएगी व भारत की जनता की कमाई से वसूला गया अरबो-खरबों रुपयों का धन ऐसे ही व्यर्थ जाता रहेगा तथा भारतीय संसद लोक-वित्त के संरक्षण के अपने प्राथमिक दायित्व को अपने पैरो तले ही कुचलती रहेगी.
"जब रक्षक ही भक्षक बन जाये,
तब हमें देये कौन सहारा.
किसे बताये,कैसे बताये,
लोकतंत्र मेरा इस जग में ऐसे ही हारा.
नेता खा गए पैसा सारा-का-सारा,
और हमें सिखाते संयम का नारा.
जिसे सौप दिया राजदंड हमने,
उसने हमें मारा-ही-मारा.
अब आप बताये हमें देये कौन सहारा......?"