"VIOLENCE AGAINST WOMAN"
There is a drawing theme in my mind, but I am not able to draw it because I am not a painter. The theme is that a helpless and frightened semi-naked woman is surrounded by two semi-snake man; that is snake who has a man's head with a terrible expression. One snake-man is trying to bite on woman's breast and another one is trying to suppress woman near by her face and she is trying to keep away both of them with her hands. Her eyes is dripping with tears and hands and breast is dripping with blood. These tears and blood drops are named with the type of violence against the woman; like rape,abduction,kidnapping,dowry,domestic violence,violence against widows,prostitution,femicide and toeticide,teasing,emotional and economical insecurity etc. These tears and blood drops are scattered on the land and on this scene some badly malnourished children are appearing.
Can anybody do a favour for me to draw it.
http://livetalent.org/
http://megamedicus.com/
"I WOULD BE HAPPY TO MAKE YOU MORE PROSPEROUS"
Sunday, 5 April 2009
Friday, 20 March 2009
नवोदय विद्यालय
नवोदय विद्यालय
दिव्य-दीप की चिंगारी से ज्ञान की ज्योत बिखेरी है ,
संगीत के सात सुरों से अमृत-रस धार निचोडी है ।
उपवन से कलियाँ चुनकर फूलों की खुशबू महकाई है ,
नवोदय विद्यालय ने इसी तरह न जाने कितनों की किस्मत चमकाई है ।
आकाश ओड़कर सोने वालों कों रत्न -गर्भ की राह दिखाई है ,
जीवन की मुश्किल घडियों में इसने नई दिशा बताई है ।
नवोदय विद्यालय ने इसी तरह न जाने कितनों की किस्मत चमकाई है ।
http://livetalent.org/
http://megamedicus.com/
दिव्य-दीप की चिंगारी से ज्ञान की ज्योत बिखेरी है ,
संगीत के सात सुरों से अमृत-रस धार निचोडी है ।
उपवन से कलियाँ चुनकर फूलों की खुशबू महकाई है ,
नवोदय विद्यालय ने इसी तरह न जाने कितनों की किस्मत चमकाई है ।
आकाश ओड़कर सोने वालों कों रत्न -गर्भ की राह दिखाई है ,
जीवन की मुश्किल घडियों में इसने नई दिशा बताई है ।
नवोदय विद्यालय ने इसी तरह न जाने कितनों की किस्मत चमकाई है ।
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Thursday, 5 March 2009
मेरी बेटी
" मेरी बेटी "
मेरी बेटी , कुछ -कुछ पागल सी,
अपनी सरलता के साथ,
मासूम प्रतिमा सी लगती है ।
है वह बहुत कुछ हठीली जिद्दी सी ,
पर बातों के अपनत्व से ,
मात्र प्रतिमूर्ति सी लगती है
वह खुश रहना चाहती है ,
अपने घर की दुनिया में ,
खिलोनों के छोटे संसार में ।
बाहर निकलने में बहुत घबराती है ,
बड़ों की बड़ी दुनिया में ,
परिचित-अजनबी चेहरों के बीच ,
वह अचानक सहम सी जाती है ,
शायद, वह अकेली हो जाती है ।
खिलोनों के संग खेल में ,
अक्सर जिद करती है अजीब सी ,
साथ मेरे बात करो, दोड़ो -भागो ,
खिलोनों से ऐसा वह कहती है ।
पर कोई भी बात नही करता ,
मौन और गहरा जाता है ,
मेरी बेटी शायद गुस्सा हो जाती है ,
हर खिलौना तोड़ देना चाहती है ,
और थोडी देर बाद ,
खिलोनों को पुनः सहेज कर ,
बिखराब मिटा देना चाहती है ,
अक्सर यह घटना दोहराई जाती है ।
यह देखकर मैं कहने लगता हूँ ,
बेटे , ऐसा कभी होता नही ,
अच्छा अब हँस दो तुम,
तू मुस्कराती अच्छी लगती है ।
मेरी बेटी समझने की कोशिश में ,
और उलझनों में डूबी सी ,
ऐसा सचमुच नहीं होता है ?
यह प्रश्न मुझसे पूछती है ,
मैं स्वयं उलझ जाता हूँ ,
उत्तर तलाशने लगता हूँ ।
अच्छा , मुझको गुडिया बना दो न ;
वह स्वयं उत्तर तलाश लेती है ।
उसकी उलझनों के आगे ,
समझदारी व्यर्थ प्रतीत होती है ।
उसको गोद में लेकर थपकी देकर ,
सुला देना चाहता हूँ ।
शायद जागने पर वह यह यक्ष्य प्रश्न भूल जाए ,
और हंसती - खेलती - मुस्कराती रहे सदा , "मेरी बेटी"।
लेखक - डॉ आशीष पटेल ( मास्टर ऑफ़ मेडीसिन )
सहायक प्राध्यपक
http://megamedicus.com/
http://livetalent.org/
मेरी बेटी , कुछ -कुछ पागल सी,
अपनी सरलता के साथ,
मासूम प्रतिमा सी लगती है ।
है वह बहुत कुछ हठीली जिद्दी सी ,
पर बातों के अपनत्व से ,
मात्र प्रतिमूर्ति सी लगती है
वह खुश रहना चाहती है ,
अपने घर की दुनिया में ,
खिलोनों के छोटे संसार में ।
बाहर निकलने में बहुत घबराती है ,
बड़ों की बड़ी दुनिया में ,
परिचित-अजनबी चेहरों के बीच ,
वह अचानक सहम सी जाती है ,
शायद, वह अकेली हो जाती है ।
खिलोनों के संग खेल में ,
अक्सर जिद करती है अजीब सी ,
साथ मेरे बात करो, दोड़ो -भागो ,
खिलोनों से ऐसा वह कहती है ।
पर कोई भी बात नही करता ,
मौन और गहरा जाता है ,
मेरी बेटी शायद गुस्सा हो जाती है ,
हर खिलौना तोड़ देना चाहती है ,
और थोडी देर बाद ,
खिलोनों को पुनः सहेज कर ,
बिखराब मिटा देना चाहती है ,
अक्सर यह घटना दोहराई जाती है ।
यह देखकर मैं कहने लगता हूँ ,
बेटे , ऐसा कभी होता नही ,
अच्छा अब हँस दो तुम,
तू मुस्कराती अच्छी लगती है ।
मेरी बेटी समझने की कोशिश में ,
और उलझनों में डूबी सी ,
ऐसा सचमुच नहीं होता है ?
यह प्रश्न मुझसे पूछती है ,
मैं स्वयं उलझ जाता हूँ ,
उत्तर तलाशने लगता हूँ ।
अच्छा , मुझको गुडिया बना दो न ;
वह स्वयं उत्तर तलाश लेती है ।
उसकी उलझनों के आगे ,
समझदारी व्यर्थ प्रतीत होती है ।
उसको गोद में लेकर थपकी देकर ,
सुला देना चाहता हूँ ।
शायद जागने पर वह यह यक्ष्य प्रश्न भूल जाए ,
और हंसती - खेलती - मुस्कराती रहे सदा , "मेरी बेटी"।
लेखक - डॉ आशीष पटेल ( मास्टर ऑफ़ मेडीसिन )
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