नवोदय विद्यालय
दिव्य-दीप की चिंगारी से ज्ञान की ज्योत बिखेरी है ,
संगीत के सात सुरों से अमृत-रस धार निचोडी है ।
उपवन से कलियाँ चुनकर फूलों की खुशबू महकाई है ,
नवोदय विद्यालय ने इसी तरह न जाने कितनों की किस्मत चमकाई है ।
आकाश ओड़कर सोने वालों कों रत्न -गर्भ की राह दिखाई है ,
जीवन की मुश्किल घडियों में इसने नई दिशा बताई है ।
नवोदय विद्यालय ने इसी तरह न जाने कितनों की किस्मत चमकाई है ।
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"I WOULD BE HAPPY TO MAKE YOU MORE PROSPEROUS"
Friday, 20 March 2009
Thursday, 5 March 2009
मेरी बेटी
" मेरी बेटी "
मेरी बेटी , कुछ -कुछ पागल सी,
अपनी सरलता के साथ,
मासूम प्रतिमा सी लगती है ।
है वह बहुत कुछ हठीली जिद्दी सी ,
पर बातों के अपनत्व से ,
मात्र प्रतिमूर्ति सी लगती है
वह खुश रहना चाहती है ,
अपने घर की दुनिया में ,
खिलोनों के छोटे संसार में ।
बाहर निकलने में बहुत घबराती है ,
बड़ों की बड़ी दुनिया में ,
परिचित-अजनबी चेहरों के बीच ,
वह अचानक सहम सी जाती है ,
शायद, वह अकेली हो जाती है ।
खिलोनों के संग खेल में ,
अक्सर जिद करती है अजीब सी ,
साथ मेरे बात करो, दोड़ो -भागो ,
खिलोनों से ऐसा वह कहती है ।
पर कोई भी बात नही करता ,
मौन और गहरा जाता है ,
मेरी बेटी शायद गुस्सा हो जाती है ,
हर खिलौना तोड़ देना चाहती है ,
और थोडी देर बाद ,
खिलोनों को पुनः सहेज कर ,
बिखराब मिटा देना चाहती है ,
अक्सर यह घटना दोहराई जाती है ।
यह देखकर मैं कहने लगता हूँ ,
बेटे , ऐसा कभी होता नही ,
अच्छा अब हँस दो तुम,
तू मुस्कराती अच्छी लगती है ।
मेरी बेटी समझने की कोशिश में ,
और उलझनों में डूबी सी ,
ऐसा सचमुच नहीं होता है ?
यह प्रश्न मुझसे पूछती है ,
मैं स्वयं उलझ जाता हूँ ,
उत्तर तलाशने लगता हूँ ।
अच्छा , मुझको गुडिया बना दो न ;
वह स्वयं उत्तर तलाश लेती है ।
उसकी उलझनों के आगे ,
समझदारी व्यर्थ प्रतीत होती है ।
उसको गोद में लेकर थपकी देकर ,
सुला देना चाहता हूँ ।
शायद जागने पर वह यह यक्ष्य प्रश्न भूल जाए ,
और हंसती - खेलती - मुस्कराती रहे सदा , "मेरी बेटी"।
लेखक - डॉ आशीष पटेल ( मास्टर ऑफ़ मेडीसिन )
सहायक प्राध्यपक
http://megamedicus.com/
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मेरी बेटी , कुछ -कुछ पागल सी,
अपनी सरलता के साथ,
मासूम प्रतिमा सी लगती है ।
है वह बहुत कुछ हठीली जिद्दी सी ,
पर बातों के अपनत्व से ,
मात्र प्रतिमूर्ति सी लगती है
वह खुश रहना चाहती है ,
अपने घर की दुनिया में ,
खिलोनों के छोटे संसार में ।
बाहर निकलने में बहुत घबराती है ,
बड़ों की बड़ी दुनिया में ,
परिचित-अजनबी चेहरों के बीच ,
वह अचानक सहम सी जाती है ,
शायद, वह अकेली हो जाती है ।
खिलोनों के संग खेल में ,
अक्सर जिद करती है अजीब सी ,
साथ मेरे बात करो, दोड़ो -भागो ,
खिलोनों से ऐसा वह कहती है ।
पर कोई भी बात नही करता ,
मौन और गहरा जाता है ,
मेरी बेटी शायद गुस्सा हो जाती है ,
हर खिलौना तोड़ देना चाहती है ,
और थोडी देर बाद ,
खिलोनों को पुनः सहेज कर ,
बिखराब मिटा देना चाहती है ,
अक्सर यह घटना दोहराई जाती है ।
यह देखकर मैं कहने लगता हूँ ,
बेटे , ऐसा कभी होता नही ,
अच्छा अब हँस दो तुम,
तू मुस्कराती अच्छी लगती है ।
मेरी बेटी समझने की कोशिश में ,
और उलझनों में डूबी सी ,
ऐसा सचमुच नहीं होता है ?
यह प्रश्न मुझसे पूछती है ,
मैं स्वयं उलझ जाता हूँ ,
उत्तर तलाशने लगता हूँ ।
अच्छा , मुझको गुडिया बना दो न ;
वह स्वयं उत्तर तलाश लेती है ।
उसकी उलझनों के आगे ,
समझदारी व्यर्थ प्रतीत होती है ।
उसको गोद में लेकर थपकी देकर ,
सुला देना चाहता हूँ ।
शायद जागने पर वह यह यक्ष्य प्रश्न भूल जाए ,
और हंसती - खेलती - मुस्कराती रहे सदा , "मेरी बेटी"।
लेखक - डॉ आशीष पटेल ( मास्टर ऑफ़ मेडीसिन )
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